Tuesday, October 19, 2021

साईं स्तवन मंजरी lyrics and mp3 - by दास गणु महाराज

साईं स्तवन मंजरी lyrics and mp3

साईं बाबा को समर्पित अतिपावन "श्री साईनाथ स्तवन मंजरी" के लेखक दास गणु महाराज जी हैं जो एक महान कीर्तनकार और साईं बाबा के अनन्य भक्तों में से एक थे। साईं स्तवन मंजरी दास गणु की अनेक प्रसिद्द रचनाओं में से एक है जो साईं बाबा की स्तुति में लिखी गयी है। हृदयस्पर्शी साईं स्तवन मंजरी में दास गणु (एक भक्त) स्वयं को साईं बाबा (अपने गुरु व भगवान) को पूरी तरह से समर्पित करते हैं और मन को पूर्णतः शुद्ध करने की इच्छा प्रकट करते हैं। मंगलदायक साईं स्तवन मंजरी का पाठ साईभक्तों के लिए अत्यंत कल्याणकारी है।

यह भी सुनें, साईं बावनी और साईं चालीसा .

sai stavan manjari lyrics


साईं स्तवन मंजरी lyrics

ॐ गं गणपतये नमः।

ॐ श्री साई नाथाय नमः।

ह. भ. प. दास गणू कृत श्री साईनाथ स्तवन मंजरी

जानिये साईं बाबा के १०८ नाम (108 names of Sai Baba).


Play 👇 साईं स्तवन मंजरी

श्री गणेशाय नमः ।

हे सर्वाधारा मयुरेश्वर। सर्वसाक्षी गौरीकुमरा।।

हे अचिंत्य लंबोदरा। पाहि मं श्रीगणपते ।।१।।


तूं सकल गणांचा आदि ईश। म्हणूनि म्हणती गणेश।।

तूं संमत सर्व शास्त्रांस। मंगलरूपा भालचंद्रा।।२।।


हे शारदे वाग्विलासिनी। तूं शब्द सृष्टीची स्वामींनी।।

तुझे अस्तित्व म्हणूनी। व्यवहार चालती जगताचे।।३।।


तूं ग्रंथकाराची देवता। तूं भूषण देशाचे सर्वथा।।

तुझी अवघ्यांत अगाध सत्ता। नमो तुजसी जगदंबे।।४।।


हे पूर्णब्रह्म संतप्रिय। हे सगुणरूपा पंढरीराया।।

कृपार्णवा परम सदया। पांडुरंगा नरहरे।।५।।


तूं अवघ्यांचा सूत्रधार। तुझी व्याप्त्ती जगभर।।

अवघीं शास्त्रें विचार। करिती तुझ्या स्वरूपाचा।।६।।


पुस्तकज्ञानी जे जे कोणी। त्यां तूं न गवससी चक्रपाणी।।

त्या अवघ्या मूर्खांनी। शब्दवाद करावा।।७।।


तुला जाणती एक संत। बाकीचे होती कुंठित।।

तुला माझा दंडवत। आदरें हा अष्टांगी।।८।।


हे पंचवक्त्रा शंकरा। हे नररुंडमालाधारा।।

हे नीळकंठा दिगंबर। ओंकाररुपा पशुपते।।९।।


सुनें साईं बाबा कष्ट निवारण मंत्र.


तुझें नाम ज्याचे ओठीं। त्याचें दैन्य जाय उठाउठी।।

ऐसा आहे धूर्जटी। महिमा तुझ्या नावाचा।।१०।।


तुझ्या चरणां वंदून। मी हें स्तोत्र करितों लेखन।।

यास करावें साह्य पूर्ण। तूं सर्वदा नीळकंठा।।११।।


आतां वंदूं अत्रिसुता। इंदिराकुलदैवता।।

श्रीतुकारामादि सकल संतां। तेवीं अवघ्या भाविकांसी।।१२।।


जय जयाजी साईनाथा। पतितपावन कृपावंता।।

तुझ्या पदीं ठेवितों माथा। आतां अभय असूं दे।।१३।।


तूं पुर्णब्रम्हा सौख्यधामा। तूंचि विष्णु नरोत्तम।।

अर्धांगी ती ज्याची उमा। तो कामारी तूंच की।।१४।।


तूं नरदेहधारी परमेश्वर। तूं ज्ञाननभींचा दिनकर।।

तूं दयेचा सागर। भवरोगा औषधी तूं।।१५।।


तूं हीनदीना चिंतामणी। तूं तंव भक्तां स्वर्धुनी।।

तूं बुडतीयांना भव्य तरणी। तूं भितासी आश्रय।।१६।।


जगाचें आद्य कारण। जें कां विमलचैतन्य।।

तें तुम्हीच आहा दयाघन। विश्व हा विलास तुमचाचि।।१७।।


आपण जन्मरहित। मृत्युही ना आपणांप्रत।।

तेंच अखेर कळून येत। पूर्ण विचारें शोधितां।।१८।।


जन्म आणि मरण। हीं दोन्हीं अज्ञानजन्य।।

दोहोंपासून अलिप्त आपण। मुळींच महाराजा।।१९।।


पाणी झऱ्यांत प्रगटलें। म्हणून कां तेथ उपळलें।।

ते पूर्वीच होतें पूर्ण भरलें। आले मात्र आंतुनी।।२०।।


खाचेंत आलें जीवन। म्हणूनि लाधलें अभिधान।।

झरा ऐसें तिजलागून। जलाभावीं खांचचि।।२१।।


लागला आणि आटला। हें मुळीं ठावें न जला।।

कां कीं जल खांचेला। देत नव्हतें महत्व मुळीं।।२२।।


खांचेसी मात्र अभिमान। जीवनाचा परिपूर्ण।।

म्हणून तें आटतां दारुण। दैन्यावस्था ये तिसी।।२३।।


नरदेह हि खांच खरी। शुद्ध चैतन्य विमल वारी।।

खांचा अनंत होती जरी। तरी न पालट तोयाचा।।२४।।


म्हणून अजन्मा आपणां। मी म्हणतसे दयाघना।।

अज्ञाननगाच्या कंदना। करण्या व्हावें वज्र तुम्ही।।२५।।


ऐशा खांचा आजवर। बहुत झाल्या भूमीवर।।

हल्ली अजून होणार। पुढेही कालावस्थेनें।।२६।।


या प्रत्येक खांचेप्रत। निराळें नांवरूप मिळत।।

जेणेंकरून जगतात। ओळख त्यांची पटतसे।।२७।।


आतां चैतन्याप्रत। मी - तूं म्हणणें ना उचित।।

कां कीं जेथें न संभवतें द्वैत। तेंचि चैतन्य निश्चयें।।२८।।


आणि व्याप्ती चैतन्याची। अवघ्या जगाठायीं साची।।

मग मी - तूं या भावनेची। संगत कैशी लागते।।२९।।


जल मेघगर्भीचें। एकपणें एक साचें।।

अवतरणें भूवरी होतां त्याचे। भेद होती अनेक।।३०।।


जें गोदेच्या पात्रांत। तें गोदा म्हणून वाहिले जात।।

जें पडे कूपांत। तैसी न त्याची योग्यता।।३१।।


संतरुप गोदावरी। तेथील तुम्ही आहां वारी।।

आम्ही थिल्लर कूप सरोवरी। म्हणूनि भेद तुम्हां आम्हां।।३२।।


आम्हां व्हावया कृतार्थ। आलें पाहिजे तुम्हांप्रत।।

शरण सर्वदा जोडून हात। का कीं पवित्रता तुम्हांठाई।।३३।।


पात्रामुळें पवित्रता। आली गोदा - जलासी सर्वथा।।

नुसत्या जलांत पाहतां। तें एकपणे एकचि।।३४।।


पात्र गोदावरीचें। जें कां ठरलें पवित्र साचें।।

तें ठरण्यांत भूमीचे। गुणदोष झाले साह्य पहा।।३५।।


मेघगर्भीच्या उदकाला। जो भूमिभाग न बदलवी भला।।

त्याच भूमीच्या भागाला। गोड म्हणाले शास्त्रवेत्ते।।३६।।


इतरत्र जें जल पडलें। त्यानें पदगुणा स्वीकारलें।।

रोगी कडू खारट झाले। मूळचें गोड असूनी।।३७।।


तैसें गुरुवरा आहे येथ। षड्रिपूंची न घाण जेथ।।

त्या पवित्र पिंडप्रत। संत अभिधान शोभतसे।।३८।।


म्हणून संत ती गोदावरी। मी म्हणतों साजिरी।।

अवघ्या जीवांत आहे खरी। आपुली श्रेष्ठ योग्यता।।३९।।


जगदारंभापासून। गोदा आहेच निर्माण।।

तोयही भरलें परिपूर्ण। तुटी न झाली आजवरी।।४०।।


पहा जेव्हां रावणारी। येता झाला गोदातीरीं।।

त्या वेळचें तेथील वारी। टिके कोठून आजवरी।।४१।।


पात्र मात्र तेंच उरलें। जल सागर मिळालें।।

पावित्र्य कायम राहिलें। जल-पात्रांचें आजवरी।।४२।।


प्रत्येक संवत्सरी। जुनें जाऊनि नवें वारी।।

येत पात्राभीतरीं। तोच न्याय तुम्हां ठाया।।४३।।


शतक तेंच संवत्सर। त्या शतकांतील साधुवर।।

हेंच जल साचार। नाना विभूती ह्या लाटा।।४४।।


या संतरूप गोदेसी। प्रथम संवत्सरासी।।

पूर आला निश्चयेंसीं। सनत्सनक - सनंदनाचा।।४५।।


मागून नारद तुंबर। ध्रुव प्रल्हाद बलि नृपवर।।

शबरी अंगद वायुकुमर। विदूर गोपगोपिका।।४६।।


ऐसे बहुत आजवरी। प्रत्येक शतकामाझारीं।।

पूर आले वरच्यावरी। तें वर्णण्या अशक्य मी।।४७।।


या सांप्रतच्या शतकांत। संतरुप गोदेप्रत।।

आपण पूर आलांत। साईनाथा निश्चयें।।४८।।


म्हणून तुमच्या दिव्य चरणां। मी करितों वंदना।।

महाराज माझ्या दुर्गणा। पाहूं नका किमपिही।।४९।।


मी हीन दीन अज्ञानी। पातक्यांचा शिखामणी।।

युक्त अवघ्या कुलक्षणांनी। परी अव्हेर करूं नका।।५०।।


लोहाअंगीचे दोष। मना न आणी परीस।।

गांवीच्या लेंड्या ओहोळास। गोदा न लावी परतवूनि।।५१।।


माझ्यामधील अवघी घाण। आपुल्या कृपाकटाक्षेंकरून।।

करा करा वेगें हरण। हीच विनंती दासाची।।५२।।


परिसाचा संग होऊन। लोहाचें तें लोहपण।।

जरी न हेय गुरुवरा हरण। तरी हीनत्व परिसासी।।५३।।


मला पापी ठेवूं नका। आपण हीनत्व घेऊं नका।।

आपण परीस मी लोह देखा। माझी चाड आपणातें।।५४।।


बालक अपराध सदैव करितें। परी न माता रागावते।।

हें आणून ध्यानातें। कृपाप्रसाद करावा।।५५।।


हे साईनाथ सदगुरु। तूंच माझा कल्पतरु।।

भवाब्धीचें भव्य तारुं। तूच अससी निश्चयें।।५६।।


तू कामधेनू चिंतामणी। तूं ज्ञान-नभीचा वासरमणी।।

तू सदगुणांची भव्य खाणी। अथवा सोपान स्वर्गीचा।।५७।।


हे पुण्यवंता परम पावना। हे शांतिमूर्ती आनंदघना।।

हे चित्स्वरुपा परिपूर्णा। हे भेदरहिता ज्ञानसिंधो।।५८।।


हे विज्ञानमूर्ति नरोत्तमा। हे क्षमाशांतीच्या निवासधामा।।

हे भक्तजनांच्या विश्रामा। प्रसीद प्रसीद मजप्रती।।५९।।


तूंच सदगुरु मच्छिंदर। तूच महात्मा जालंदर।।

तूं निवृत्तिनाथ ज्ञानेश्वर। कबीर शेख नाथ तूं।।६०।।


तूंच बोधला सावता। तूच रामदास तत्वतां।।

तूच तुकाराम साईनाथा। तूच सखा माणिक प्रभू।।६१।।


या आपुल्या अवताराची। परी आहे अगम्य साची।।

ओळख आपुल्या जातीची। होऊं न देतां कवणातें।।६२।।


कोणी आपणां म्हणती यवन। कोणी म्हणती ब्राह्मण।।

ऐसी कृष्णासमान। लीला आपण मांडिली।।६३।।


श्री कृष्णास पाहून। नाना प्रकारें वदले जन।।

कोणी म्हणले यदुभूषण।। कोणी म्हणाले गुराखी।।६४।।


यशोदा म्हणे सुकुमार बाळ। कंस म्हणे महाकाळ।।

उद्धव म्हणे प्रेमळ। अर्जुन म्हणे ज्ञान जेठी।।६५।।


तैसें गुरुवरा आपणांसी। जें ज्याच्या मानसी।।

योग्य वाटेल निश्चयेंसी। तें तें तुम्हा म्हणतसे।।६६।


मशीद आपुलें वसतिस्थान। विंधावांचून असती कान।।

फत्याच्या तऱ्हा पाहून। यवन म्हणणे भाग तुम्हां।।६७।।


तैसी अग्नीची उपासना। पाहुनी आपुली दयाघना।।

निश्चय होत आमुच्या मना। कीं आपण हिंदू म्हणूनी।।६८।।


परी भेद हे व्यावहारिक। यातें चाहतील तार्किक।।

परी जिज्ञासू भाविक। त्यां न वाटे महत्व यांचे।।६९।।


आपुली आहे ब्राह्मस्थिती। जात गोत ना आपणांप्रती।।

आपण अवघ्यांचे गुरुमूर्ती। आहां आद्यकारण।।७०।।


यवन-हिंदूचे विपट आलें। म्हणून तदैक्य करण्या भलें।।

मशीद-अग्नीला स्वीकारिलें। लीला भक्तांस दावावया।।७१।।


आपण जातगोतातीत। सद्वस्तु जी कां सत।।

तीच तुम्ही साक्षात। तर्कातीत साच कीं।।७२।।


तर्कवितर्कांचे घोडें। चालले किती आपणांपुढें।।

तेथें माझे बापुडे। शब्द टिकतील कोठुनी।।७३।।


पारी पाहुनी तुम्हाला। मौन न ये धरितां मला।।

कां कीं शब्द हेच स्तुतीला। साहित्य आहेत व्यवहारी।।७४।।


म्हणून शब्देकरून। जें जें होईल वर्णन।।

तें तें सर्वदा करीन। आपुल्या कृपाप्रसादें।।७५।।


संतांची योग्यता भली। देवाहून आगळी।।

अजादुजास नाही मुळीं। स्थान जवळ साधूंच्या।।७६।।


हिरण्यकश्यपु-रावणाला। देवद्वेषें मृत्यु आला।।

तैसा एकही नाही घडला। प्रकार संतहस्तानें।।७७।।


गोपीचंदे उकिरड्यासी। गाडिले जालंदरासी।।

परी त्या महात्म्यासी। नाहीं वाटला विषाद।।७८।।


उलट राजाचा उद्धार केला। चिरंजीव करुनि सोडिला।।

ऐशा संतांच्या योग्यतेला। वर्णन करावें कोठवरी।।७९।।


संत सूर्यनारायण। कृपा त्यांची प्रकाशपूर्ण।।

संत सुखद रोहिणी रमण। कौमुदी ती तत्कृपा।।८०।।


संत कस्तुरी सोज्ज्वळ। कृपा त्यांची परिमळ।।

संत इक्षु रसाळ। रसनव्हाळी तत्कृपा।।८१।।


संत सुष्टदुष्टांप्रती। समसमान निश्चिती।।

उलट पाप्यावरी प्रीती। अलोट त्यांची वसतसे।।८२।।


गोदावरीजलांत। मळकट तेंच धुवाया येत।।

निर्मळ ते संदुकींत। राहे लांब गोदेपासुनी।।८३।।


जें संदुकीमध्यें बसलें। तेंही वस्त्र एकदां आले।।

होतें धूवावया लागीं भलें। गोदावरीचे पात्रात।।८४।।


येथे संदुक वैकुंठ। गोदा तुम्ही निष्ठा घाट।।

जीवात्मे हेच पट। षडविकार मळ त्यांचा।।८५।।


तुमच्या पदाचें दर्शन। हेंच आहे गोदास्नान।।

अवघ्या मळातें घालवून। पावन करणें समर्था।।८६।।


आम्ही जन हे संसारी। मळत आहों वरच्यावरी।।

म्हणून आम्हीच अधिकारी। संतदर्शन घेण्यास्तव।।८७।।


गौतमीमाजीं विपुल नीर। आणि धुणें मळकट घाटावर।।

तैसेंच पडल्या साचार। त्यांचें हीनत्व गोदेसी।।८८।।


तुम्ही सघन शीत तरुवर। आम्ही पांथस्थ साचार।।

तापत्रयाचा हा प्रखर। तापलासे चंडाशु।।८९।।


याच्या तापापासून सदया। करा रक्षण गुरुराया।।

सत्कृपेची शीतळ छाया। आहे आपुली लोकोत्तर।।९०।।


वृक्षाखाली बैसून। जरी लागतें वरुन ऊन।।

तरी त्या तरुलागून। छायातरू कोण म्हणे।।९१।।


तुमच्या कृपेवीण पाहीं। जगांत बरें होणें नाही।।

अर्जुनाला शेषशायी। सखा लाधला धर्मास्तव।।९२।।


सुग्रीव-कृपेनें विभीषणा। साधलासे रामराणा।।

संतांमुळेंच मोठेपणा। लाधला श्रीहरीसी।।९३।।


ज्याचें वर्णन वेदांसी। न होय ऐशा ब्रह्मांसी।।

सगुण करवून भूमीसी। लाजविलें संतांनीच।।९४।।


दामाजीनें बनविला महार। वैकुंठपती रुक्मिणीवर।।

चोखोबानें उचलण्या ढोर। राबविलें त्या जगदात्मया।।९५।।


संतमहत्व जाणून। पाणी वाही जगत-जीवन।।

संत खरेच यजमान। सच्चीदानंद प्रभूचे।।९६।।


फार बोलणें न लगे आतां। तूंच आम्हा माता पिता।।

हे सदगुरु साईनाथा। शिर्डी ग्रामनिवासिया।।९७।।


बाबा तुमच्या लीलेचा। कोणा नलगे पाड साचा।।

तेथें माझी आर्ष वाचा। टिकेल सांगा कोठून।।९८।।


जड-जीवांच्या उद्धारार्थ। आपण आला शिर्डीत।।

पाणी ओतून पणत्यांत। दिवे तुम्ही जाळिले।।९९।।


सवा हात लाकडाची। फळी मंचक करुन साची।।

आपुल्या योगसामर्थ्याची। शक्ती दाविली भक्तजनां।।१००।।


वांझपणा कैकांचा। तुम्ही केलात हरण साचा।।

कित्येकांच्या रोगांचा। बिमोड केलात उदीने।।१०१।।


वारण्या ऐहिक संकटे। तुम्हां न कांही अशक्य वाटे।।

पिपीलिकेचे कोठून मोठें। ओझें मानी गजपति।।१०२।।


असो आतां गुरुराया। दिनावरी करा दया।।

मी तुमच्या लागलों पायां। मागों न लोटा मजलागीं।।१०३।।


तुम्ही महाराज राजेश्वर। तुम्ही कुबेरांचे कुबेर।।

तुम्ही वैद्यांचे वैद्य निर्धार। तुम्हांविण ना श्रेष्ठ कोणी।।१०४।।


अवांतराचे पूजेस। साहित्य आहे विशेष।।

परी पूजावया तुम्हांस। जगीं पदार्थ न राहिला।।१०५।।


पहा सूर्याचिया घरीं। सण दिपवाळी आली खरी।।

परी ती त्यानें साजिरी। करावी कोणत्या द्रव्यें।।१०६।।


सागराची शमवावया। तहान, जल ना महीं ठाया।।

वन्हीलागी शेकावया। अग्नी कोठून द्यावा तरी।।१०७।।


जे जे पदार्थ पूजेचे। ते ते तुमच्या आत्म्याचे।।

अंश आधींच असती साचे। श्रीसमर्थां गुरुराया।।१०८।।


हें तत्वदृष्टीचें बोलणे। परी न तैशी झाली मनें।।

बोललों अनुभवाविणें। शब्दजाला निरर्थक।।१०९।।


व्यावहारिक पूजन जरी। तुमचे करूं मी सांगा तरी।।

तें कराया नाहीं पदरीं। सामर्थ्य माझ्या गुरुराया।।११०।।


बहुतेक करुन कल्पना। करितों तुमच्या पूजना।।

तेंच पूजन दयाघना। मान्य करा या दासांचे।।१११।।


आतां प्रेमाश्रुकरून। तुमचे प्रक्षालितों चरण।।

सद्भक्तीचें चंदन। उगाळून लावितों।।११२।।


कफनी शब्दालंकाराची। घालितों ही तुम्हां साची।।

प्रेमभाव या सुमनाची। माळा गळ्यांत घालितों।।११३।।


धूप कुत्सितपणाचा। तुम्हांपुढे जाळितों साचा।।

जरी तो वाईट द्रव्याचा। परी न सुटेल घाण त्यासी।।११४।।


सद्गुरुविण इतरत्र। जे जे धूप जाळितात।।

त्या धूप द्रव्याचा तेथ। ऐसा प्रकार होतसे।।११५।।


धूपद्रव्यास अग्नीचा। स्पर्श होतांक्षणी साचा।।

सुवास सद्गुण तदंगीचा। जात त्याला सोडून।।११६।।


तुमच्यापुढें उलटें होतें। घाण तेवढी अग्नीत जळते ।।

सदगुण उरती पाहण्यातें । अक्षयींचे जगास ।।११७।।


मनींचें गळाल्या कुत्सितपण । मलरहित होईल मन ।।

गंगेचें गेल्यागढूळपण । मग ती पवित्र सहजचि ।।११८।।


दीप मायामोहाचा। पाजळितों मी हा साचा।।

तेणें वैराग्यप्रभेचा। होवो गुरुवरा लाभ मसी।।११९।।


शुद्ध निष्ठेचें सिंहासन। देतों बसावया कारण।।

त्याचे करुनियां ग्रहण। भक्तिनैवेद्य स्वीकारा।।१२०।।


भक्तिनैवेद्य तुम्ही खाणे। तद्र्स मला पाजणें ।।

कां कीं मी तुमचे तान्हें। पयावरी हक्क माझा ।।१२१।।


मन माझें दक्षणा। ती मी अर्पितों आपणां ।।

जेणे नुरेल कर्तेपणा। कशाचाही मजकडे ।।१२२।।


आतां प्रार्थनापूर्वक मात्र। घालितों मी दंडवत।।

तें मान्य होवो आपणांप्रत। पुण्यश्लोका साईनाथा ।।१२३।।


।। प्रार्थनाष्टक ।।

।। श्लोक ।।


शांतचित्ता महाप्रज्ञा। साईनाथा दयाघना ।।

दयासिंधो सत्स्वरुपा। मायातमविनाशना ।।१२४।।


जातगोतातीत सिद्धा। अचिंत्य करुणालया ।।

पाही मां पाही मां नाथा। शिर्डिग्रामनिवासिया ।।१२५।।


श्रीज्ञानार्क ज्ञानदात्या । सर्व मंगलकारका ।।

भक्तचित्तमराळा हे। शरणगतरक्षका ।।१२६।।


सृष्टीकर्ता विरिंची तूं। पाता तू इंदिरापती ।।

जगत्रया लया नेता। रुद्र तो तूंच निश्चितीं ।।१२७।।


तुजविणें रिता कोठें। ठाव ना या महीवरी ।।

सर्वज्ञ तूं साईनाथा। सर्वांच्या हृदयांतरी ।।१२८।।


क्षमा सर्वापराधांची। करावी हेंचि मागणें ।।

अभक्तिसंशयाच्या त्या। लाटा शीघ्र निवारणें ।।१२९।।


तूं धेनू वत्स मी तान्हें । तूं इंदू चंद्रकांत मी ।।

स्वर्णदीरुप त्वत्पादा। आदरें दास हा नमी ।।१३०।।


ठेव आतां शिरी माझ्या। कृपेचा करपंजर ।।

शोक चिंता निवारावी। गणू हा तव किंकर ।।१३१।।


या प्रार्थना प्रार्थनाष्टकेंकरून । मी करितों साष्टांग नमन ।।

पाप ताप आणि दैन्य । माझे निवारा लवलाहीं ।।१३२।।


तूं गाय मी वासरुं । तूं माय मी लेंकरुं ।।

माझेविषयी नको धरुं । कठोरता मानसी ।।१३३।।


तूं मलयागिरी चंदन । मी काटेरी झुडुप जाण ।।

तू पवित्र गोदाजीवन । मी महापातकी ।।१३४।।


तुझें दर्शन होवोनियां । दुर्बुद्धि-घाण माझे ठाया ।।

राहिल्या तैशीच गुरुराया । चंदन तुजला कोण म्हणे ।।१३५।।


कस्तुरीच्या सहवासें । मृत्तिका मोल पावतसे ।।

पुष्पासंगे घडतसे । वास सूत्रा मस्तकीं ।।१३६।।


थोरांची ती हीच रीती । ते ज्या ज्या गोष्टी ग्रहण करिती ।।

त्या त्या वस्तु पावविती । ते महत्पदा कारणें ।।१३७।।


भस्म कौपीन नंदीचा । शिवें केला संग्रह साचा ।।

म्हणून त्या वस्तूंचा । गौरव होत चहूंकडे ।।१३८।।


गोपरंजनासाठी । वृंदावनी यमुनातटी ।।

काला खेळला जगजेठी । तोही मान्य झाला बुधा ।।१३९।।


तैसा मी तो दुराचारी । परी आहें तुमच्या पदरीं ।।

म्हणून विचार अंतरी । याचा करा हो गुरुराया ।।१४०।।


ऐहिक वा पारमार्थिक । ज्या ज्या वस्तूंस मानील सुख ।।

माझे मन हे निःशंक । त्या त्या पुरविणें गुरुराया ।।१४१।।


आपुल्या कृपेने ऐसें करा । मनालागी आवरा ।।

गोड केल्यास सागरा । क्षारोदकपणाची नसे भीती ।।१४२।।


सागर गोड करण्याची । शक्ती आपणांमध्ये साची ।।

म्हणून दासगणूची । याचना ही पुरी करा ।।१४३।।


कमीपणा जो जो माझा । तो तो अवघा तुझा ।।

सिद्धांचा तूं आहेस राजा । कमीपणा न बरवा तुजसी ।।१४४।।


आतां कशास्तव बोलूं फार । तूंच माझा आधार ।।

शिशु मातेच्या कडेवर । असल्या निर्भय सहजचि ।।१४५।।


असो या स्तोत्रासी । जे जे वाचतील प्रेमेंसीं ।।

त्यांच्या त्यांच्या कामनेसी । तुम्ही पुरवा महाराजा ।।१४६।।


या स्तोत्रास आपुला वर । हाचि असो निरंतर ।।

पठणकर्त्यांचे त्रिताप दूर । व्हावे एक संवत्सरीं ।।१४७।।


शुचिर्भूत होऊन । नित्य स्तोत्र करावें पठण ।।

शुद्ध भाव ठेवून । आपुलिया मानसी ।।१४८।।


हें अशक्य असलें जरी । तरी प्रत्येक गुरुवारी ।।

सदगुरुमूर्ति अंतरी । आणून पाठ करावा ।।१४९।।


तेंही अशक्य असल्यास । प्रत्येक एकादशीस ।।

वाचणें या स्तोत्रास । कौतुक त्याचें पहावया ।।१५०।।


स्तोत्रपाठकां उत्तम गती । अंती देईल गुरुमूर्ती ।।

ऐहिक वासना सत्वरगती । ह्यांची पुरवून श्रोते हो ।।१५१।।


या स्तोत्राच्या पारायणें। मंदबुद्धि होतील शहाणे ।।

कोणा आयुष्य असल्या उणें । तो पठणें होय शतायु ।।१५२।।


धनहीनता असल्या पदरीं । कुबेर येऊन राबेल घरीं ।।

हें स्तोत्र वाचल्यावरी । सत्य सत्य त्रिवाचा ।।१५३।।


संततिहीना संतान । होईल स्तोत्र केल्या पठण ।।

स्तोत्र-पाठकाचे संपूर्ण । रोग जातील दिगंतरा ।।१५४।।


भयचिंता निवेल । मानमान्यता वाढेल ।।

अविनाश ब्रह्म कळेल । नित्य स्तोत्राच्या पारायणें ।।१५५।।


धरा बुध हो स्तोत्राविशीं । विश्वास आपुल्या मानसीं ।।

तर्कवितर्क कुकल्पनेसी । जागा मुळीं देऊ नका ।।१५६।।


शिर्डी क्षेत्राची वारी करा । पाय बाबांचे चित्तीं धरा ।।

जो अनाथांचा सोयरा । भक्तकामकल्पद्रुम ।।१५७।।


त्याच्या प्रेरणेकरून । हें स्तोत्र केलें लेखन ।।

मज पामराहातून । ऐसी रचना होय कैसी ।।१५८।।


शके अठराशें चाळीसांत । भाद्रपद शुद्ध पक्षांत ।।

तिथी गणेश-चतुर्थी सत्य । सोमवारीं द्वितीय प्रहरी ।।१५९।।


श्रीसाईनाथस्तवनमंजरी । पूर्ण झाली महेश्वरीं ।।

पुनीत नर्मदेच्या तीरीं । श्रीअहिल्येसन्निध ।।१६०।।


महेश्वर क्षेत्र भलें । स्तोत्र तेथें पूर्ण झालें ।।

प्रत्येक शब्दासी वदविलें । श्रीसाईनाथें शिरुनि मनी ।।१६१।।


लेखक शिष्य दामोदर । यास झाला साचार ।।

दासगूण मी किंकर । अवघ्या संतमहंतांचा ।।१६२।।


स्वस्ति श्रीसाईनाथस्तवनमंजरी । तारक हो भवसागरीं ।।

हेंच विनवी अत्यादरीं । दास गणू श्रीपांडुरंगा ।।१६३।।


श्रीहरीहरार्पणमस्तु। शुभं भवतु। पुंडलीकवरदा हरिविठ्ठल।।

सिताकांतस्मरण जय जय राम। पार्वतीपते हर हर महादेव।।

श्री सदगुरु साईनाथ महाराज की जय ।।

0 Comments: